जल के प्रकार
सामान्यतया जल का असली रूप वर्षा-जल है किंतु बाद में वह समुद्री जल, नदी जल, भौम जल जैसे नामों से पुकारा जाता है।
उपयोग के अनुसार उसे पेय तथा व्यर्थ जल कहते हैं।
वर्षा-जल
वर्षा-जल शुद्ध जल नहीं होता क्योंकि उसमें गैसें, लवण, कणिकामय पदार्थ, कार्बनिक पदार्थ; यहाँ तक कि जीवाणु भी मिले रहते हैं।
वर्षा-जल का संघटन इस प्रकार बतलाया गया है (अंश/दश लक्षांश या पी. पी. एम.)
- Na+ = 1.98
- K+ = 0.30
- Mg++ = 0.27
- Ca++ = 0.09
- CI- =3.79
- SO4-- = 0.58
- HCO3 = 0.12
इसके अतिरिक्त वर्षा-जल में थोड़ा सिलिका (0.3 पी. पी. एम.) रहता है। वर्षा-जल का औसत पीएच मान 5.7 होता है। नदियों के जल में जितना सोडियम, पोटैशियम, क्लोरीन तथा सल्फेट होता है उसका 35 प्रतिशत Na, 55 प्रतिशत CI, 15 प्रतिशत K तथा 37 प्रतिशत सल्फेट समुद्र के माध्यम से ही वर्षा द्वारा प्राप्त होता है।
समुद्री जल
समुद्री जल में घुलित लवणों का प्रतिशत 3.5 है, इसका घनत्व 2.75 ग्रा./सेमी3 है और इसमें 92 तत्त्व पाए गए हैं जिनमें से ऑक्सीजन, सल्फर, क्लोरीन, सोडियम, मैग्नीशियम, कैल्सियम, पोटैशियम तथा कार्बन-इन आठ तत्त्वों का 99 प्रतिशत योगदान है।
नदी तथा झील का जल
जल तथा शैलों की परस्पर क्रियाओं से नदियों तथा झीलों के जल का संघटन प्रभावित होता है। औद्योगिक कार्यकलापों से वायुमंडल में प्रचुर कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड मिलते रहते हैं, जिससे ये गैसें वर्षा-जल में प्रविष्ट होकर उसके गुणों में परिवर्तन ला देती हैं। यह वर्षा-जल जब मिट्टी में मिलता है तब इसमें लवणों की मात्रा बढ़ जाती है।
नदी के जल में विलयित पदार्थों के अतिरिक्त निलंबित ठोस पदार्थ भी रहते हैं। इस समय नदियों द्वारा समुद्रों में प्रति वर्ष 155x108 टन ठोस पदार्थ पहुँचते हैं। इन ठोस पदार्थों का संघटन प्रायः मिट्टी जैसा होता है। इसी तरह प्रतिवर्ष नदियों द्वारा समुद्र में 180x106 टन कार्बनिक पदार्थ पहुँचते हैं।
समुद्री जल तथा नदी के जल में लवणों की मात्रा में काफी अंतर पाया जाता है। नदी के जल में इनकी मात्रा 0.012 प्रतिशत रहती है; जबकि समुद्र के जल में यही मात्रा 3.5 प्रतिशत है।
झीलें प्रायः मीठे जल की स्रोत हैं। नदियाँ भी मीठे जलवाली हैं।
भौम जल
जब वर्षा-जल भूमि की परतों को बेधकर नीचे पहुँचता है तो उसमें अनेक प्रक्रमों से कैल्सियम, सोडियम, मैग्नीशियम, पोटैशियम, एल्युमिनियम तथा लौह जैसे तत्त्वों के लवण मिल जाते हैं। मिट्टी में डाले गए उर्वरकों (नाइट्रोजनी तथा फास्फेटी) तथा पेस्टीसाइडों का कुछ अंश भी रिसकर इस जल में मिल जाता है जिससे यह संदूषित होने लगता है।
व्यावहारिक दृष्टि से जल को तीन प्रकारों में विभाजित किया जाता है
- स्वच्छ जल
- प्रदूषित जल,
- संदूषित जल।
स्वच्छ जल (Clean water) - यह जल सभी प्रकार के संदूषणों से । मुक्त होता है, अतः मनुष्य के लिए उपयोगी है।
प्रदूषित जल (Polluted water) - प्रदूषित जल वह होता है जिसके भौतिक गुणों में कमी आ जाती है। यह मटमैला, बदरंग, दुर्गधयुक्त तथा बुरे स्वादवाला होता है।
संदूषित जल (Contaminated water) - वह जल होता है जिसमें मानव या पशु अपशिष्टों के मिल जाने से रोगोत्पादकता उत्पन्न हो जाती है; जिससे जल व्यवहार में लाने लायक नहीं रह जाता।
पेयजल का अभाव
चूँकि 85 प्रतिशत वर्षा समुद्र के ऊपर होती है, इसलिए नदियों तथा झीलों में जितना जल है वह पीने के लिए बहुत कम है। अनुमान है कि प्रति 50,000 ग्राम समुद्री जल पर 1 ग्राम शुद्ध जल मनुष्य के लिए उपलब्ध है। इसीलिए जल अमूल्य सामग्री है । रेगिस्तानी भागों में तो जल की महत्ता और भी अधिक है।
अनुमान है कि 1 पौंड कागज उत्पादन के लिए 24 गैलन, 1 टन इस्पात के लिए 70 गैलन और 1 टन सीमेंट उत्पादन के लिए 750 गैलन जल की आवश्यकता पड़ती है।
एक बार काम में आने के बाद यह जल प्रदूषित हो जाता है और व्यर्थ जल बन जाता है। यह व्यर्थ जल नालों के द्वारा या तो भूमि पर या फिर नदियों, झीलों या समुद्र में बहा दिया जाता है। ऐसा जल न तो मनुष्य द्वारा उपयोग में लाया जा सकता है, न ही पौधे और पशु ही इससे लाभ उठा सकते हैं।
स्वच्छ जल की कमी होने से हमारे देश की 80 प्रतिशत जनता नदियों, झीलों तथा कुओं का प्रदूषित जल पीने को बाध्य है, जिससे प्रतिवर्ष 20 लाख लोग मृत्यु के शिकार बनते हैं।
सचमुच प्रकृति के अनुपम एवं अमूल्य उपहार जल को सँजोकर रखने की आवश्यकता है।
जल क्या है
जल वह प्राकृतिक उपहार है जिसका कोई विकल्प नहीं है, इसीलिए जल को अमृत या जीवन भी कहा गया है। हमारे शरीर में 70 प्रतिशत, सब्जियों में 95 प्रतिशत और मांस में 60 प्रतिशत जल पाया जाता है।
मनुष्य को जिस वस्तु की सबसे अधिक आवश्यकता पड़ती है. वह जल ही है और उसमें भी ताजा या मीठा जल। यह ताजा या मीठा जल ही पेयजल है। जल की आवश्यकतापूर्ति करने के उददेश्य से ही मनुष्य प्रारंभ से नदियों के किनारे निवास करता आया है। आज भी गंगा नदी के किनारे हमारे देश की एक-तिहाई जनसंख्या निवास करती है। जनसंख्या की वृद्धि के साथ ही जल की आवश्यकता पीने तक ही सीमित न रहकर अन्य अनेक कार्यों के लिए होने लगी है। इस तरह, अब जल का उपयोग पीने, घरेलू कार्यों, खेतों की सिंचाई, उद्योगों, नौका-चालन, मनोरंजन आदि विभिन्न कार्यों के लिए होने लगा है।
पृथ्वी की सतह के 5/7 (यानी 70 प्रतिशत) भाग में जल फैला है, जो कहीं पर उथला है तो कहीं पर पाँच से तेरह किलोमीटर तक गहरा है। यह सारा जल तरल रूप में नहीं है। पृथ्वी के जल का कुछ अंश बर्फ के रूप में बंदी है तो कुछ वाष्प के रूप में है जो वायुमंडल में उपस्थित रहता है; किंतु उसकी मात्रा नगण्य है। मिट्टी में भी जल विद्यमान है।
जल का अधिकांश (97.25 प्रतिशत) सागर में है, जो पीने के अयोग्य है, क्योंकि खारी है। जल की पूरी मात्रा में से ताजा या पेयजल का अंश बहुत कम है- केवल 2.8 प्रतिशत जिसमें से 2.2 प्रतिशत पृथ्वी की सतह पर है और शेष 0.6 प्रतिशत पृथ्वी के भीतर- भौम जल के रूप में है। इतना ही नहीं, पृथ्वी की सतह पर जितना जल है (2.2 प्रतिशत) उसमें से 2.15 प्रतिशत ताजा जल ग्लेशियरों और हिमटोपियों के रूप में है। केवल 0.010 प्रतिशत जल झीलों तथा नदियों में है। पृथ्वी के नीचे जितना जल है (0.6 प्रतिशत) उसमें से केवल 0.25 प्रतिशत ही निकालकर ऊपर लाया जा सकता है। कैसी विडंबना है कि 'जल बिच मीन पियासी'- जल की अनंत राशि होते हुए भी मनुष्य के उपयोग के लिए जो जल उपलब्ध है, उसकी मात्रा सीमित है।
यदि वह दूषित हो जाए तो फिर हमारे सारे कार्य रुक जाएंगे। इसीलिए जल हमारी चिंता का विषय है।
पृथ्वी की सतह पर जल की मात्रा (कुल मात्रा का प्रतिशत)
- सागर - 97.25
- बर्फ - 2.05
- भौम जल - 0.68
- झीलें - 0.01
- मृदा नमी - 0.005
- वायुमंडल - 0.001
- नदियाँ - 0.0001
- जैव मंडल - 0.00004
- कुल योग - 100.00
जल का रासायनिक सूत्र H2O है जिसका अर्थ है (परिशिष्ट में जल के अन्य गुण दिए गए हैं ) हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के संयोग से बना हुआ एक यौगिक। किंतु पृथ्वी पर जो जल उपलब्ध है, वह H2O नहीं है। उसमें अनेक पदार्थ विलयित रहते हैं और अनेक कणिकामय पदार्थ निलंबित रहते हैं। पृथ्वी की सतह पर पाया जानेवाला जल सभी प्रकार के अकार्बनिक तथा कार्बनिक पदार्थों का वाहक है और जल की गति के कारण इन पदार्थों का उसके साथ-साथ परिवहन होता रहता है।