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जल चक्र किसे कहते हैं | jal chakra

जल चक्र

परिभाषा एवं स्वरूप ( Definition and identity)

जलचक्र - क्रिया वायुमण्डल की एक महत्वपूर्ण कार्यिक विशेषता है। पृथ्वी तंत्र का जल सतत परिवर्तन की अवस्था में होता है , परन्तु अंतत: वह स्रोत की ही अवस्था में पहुंच जाता है। अत: इसे जलचक्र कहा जाता है । जलीय चक्र का सामान्य अर्थ सम्पूर्ण जलबजट चक्रण क्रिया से है।
जलीय चक्र का भण्डार धरातल के ऊपर विभिन्न स्थितियों में पाया जाता है तथा इसका यौगिक स्वरूप जैविक और अजैविक तत्वों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता है। जल के ठोस द्रव तथा गैसीय रूप जलीय चक्र के निर्माण में सहायक होते हैं। यदि जल का भण्डार धरातल के ऊपर प्रवाहित जल के रूप में है तो इसे तरल अवस्था में मानते हैं । सामुद्रिक स्थितियों में जल की तरल स्थिति होने के बावजूद उसमें रासायनिक सम्मिश्रण पाया जाता है। वायुमण्डलीय भागों में जल का वास्तविक स्वरूप गैसीय अवस्था में पाया जाता है।
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इस अवस्था में भी जल जलीय चक्र के निर्माण में सहायक होता है। पेड़ - पौधों द्वारा शोषित या मृदा नमी के रूप में संगृहीत जल भी जलचक्र में सहायक होते हैं। निवेशन - क्रिया द्वारा जल धरातल के नीचे प्रविष्ट करता है, जहाँ भौम जल - स्तर सीमा - रेखा के बाद भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है। यहाँ इसकी प्रवाहित होने की स्थितियों के साथ - साथ समीपवर्ती जलाकृतियों , धरातल पर प्रवाहित जल - धाराओं और वायुमण्डल में स्थित जलवाष्पों से सम्पर्क बना रहता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वायुमण्डल में स्थित जल का गैसीय रूप , ध्रुवों या पर्वतीय शीर्षों पर स्थित जल का हिमानी रूप, सभीपवर्ती भागों में हिमजल, मिश्रित जल का परिहिमानी रूप , सतह पर प्रवाहित सीरित रसायनयुक्त जल का तरल रूप , सामुद्रिक स्थिति में विद्यमान खारे जल का तरल रूप तथा अधोजल के रूप में जल का मिश्रित रूप, ये सभी मिलकर जल की चक्रीय अवस्था का निर्माण करते हैं।
अत: स्पष्ट है कि जलचक्र एक ऐसा चक्र है जिसकी क्रिया-विधि और अनिवार्यता में कोई बाधा नहीं आती , और चक भौगोलिक स्थिति व परिवर्तन के साथ एक निश्चित समय में अवश्य पूरा होता है । वास्तव में जलचक अत्यन्त जटिल प्रक्रिया है , जिसमें कई उपचक्र शामिल हैं। उदाहरण- महासागरों का जल भाप बनकर जलवाष्प के रूप में वायुमण्डल में मिल जाता है। वायुमण्डल से वर्षण के रूप में जल पुनः महासागरों में पहुँच जाता है। इस उपचक्र में स्थलमण्डल शामिल नहीं है ।

परिचय एवं विशेषता

जल सभी जीवों एवं पौधों के जीवन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। पृथ्वी तल का जल से ढंका भाग जलमण्डल कहलाता है। जल पर्यावरण का जीवनदायी तत्व है। वनस्पति से लेकर जीव - जन्तु आदि अपने पोषक तत्वों की प्राप्ति जल के माध्यम से ही करते हैं। यह ठोस, द्रव तथा गैस - तीनों रूपों में पाया जाता है। का विभिन्न रूपों में उपलब्ध रहना जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए जलवायु - विज्ञान के अध्ययन में इसका महत्वपूर्ण स्थान है । इसे धरातलीय जल और भूमिगत जल की श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। जलचक्र - क्रिया वायुमण्डल की एक महत्वपूर्ण कार्यिक विशेषता है।
इसकी महत्वपूर्ण विशेषता :
  • 71 % जल से ढंका भाग पृथ्वी का भाग जलमण्डल कहलाता है।
  • सम्पूर्ण जल बजट की चक्रण - प्रक्रिया को जलचक्र कहते हैं।
  • जल ठोस द्रव्य व गैसीय अवस्था में मिलता है।
  • हिमानी पर ठोस , भूतल पर द्रव्य , वायुमण्डल में गैसीय अवस्था में जल मौजूद है।
  • जलीय चक्र की क्रिया जल के गैसीय, हिमानी, परिहिमानी रूप, रसायनयुक्त तरल रूप, समुद्री जल आदि द्वारा होती है।
  • जल का भाप बनना, जल वाष्प के रूप में वायुमण्डल में मिलना, वायुमंडल से वर्षण के रूप में सागरों में पहुँचना आदि जलचक की क्रियाएँ हैं।
  • जलचक्र का प्रतिरूप - विवरणात्मक, गुणात्मक, अभियांत्रिकी रूपों में है।

जलचक्र की व्याख्या

जल के स्वरूप व इसकी गुणवत्ता के आधार पर कहा जा सकता है कि एक ऐसा यौगिक स्वरूप है जिसका संबंध जैविक व अजैविक तत्वों से होता है। जल के विभिन्न रूप परिवर्तनशील होते हैं और उन्हें चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न स्थानों और विभिन्न स्वरूपों से होकर गुजरना पड़ता है। प्रादेशिक स्तर पर भी जलचक्र की क्रियाएँ होती हैं। जैसे - सामुद्रिक क्षेत्र में जलचक्र, स्थलीय जलचक्र, हिमानी जलचक तथा वन - क्षेत्रों का जलचक्र। किन्तु ये सभी जल चक्र सार्वभौम नहीं होते , क्योंकि इनका संबंध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से होता है , तथा चक्र के प्रभाव और संबंधों को पर्यावरण की किसी एक इकाई में सीमांकित भी
नहीं किया जा सकता।
  • अत: प्रादेशिक स्तर पर अव्यवस्थित रूप में मिलनेवाला जलचक ग्लोबस्तर पर एक अलग चक अर्थात् उस स्तर विशेष पर सम्पूर्ण जलचक का निर्माण करता है।
जलचक्र के तरल, गैस और हिमानी - जैसे ठोस रूपों से संपन्न होता है। पर्वतीय भागों, स्थलीय खंडों , प्रवाहित धरातलीय जल - क्षेत्रों ( नदियाँ , झील , सागर , महासागर आदि ) और वन - क्षेत्रों से उसके द्वारा प्राप्त किए गए जल के आधार पर निरन्तर वाष्पीकरण की क्रियाएँ होती हैं और वहाँ से वायुमण्डल की ओर वाष्पोत्सर्जन निरन्तर होता रहता है। ये समस्त संभावित क्षेत्र वायुमण्डल को जलवाष्प प्रदान करते हैं । पेड़ - पौधों का समुदाय अपनी जड़ों द्वारा जल ग्रहण करता है, और वाष्पीकरण तथा वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया से ग्रहण किये हुए जल का 80% से अधिक भाग वायुमण्डल को वापस कर देता है । समस्त वाष्पीकरण से प्राप्त जलवाष्प द्वारा वायुमण्डल में मेध - निर्माण की प्रक्रिया संपादित होती है , जिसे संघनन कहा जाता है। संघनन की क्रिया के पश्चात जलवाष्प पूरित मेघ जलवृद्धि के रूप में धरातलीय सम्पर्क में आते हैं । इसे जल के गैसीय रूप से तरल रूप में परिवर्तित होने की क्रिया कहते हैं। नदियाँ स्वयं वाष्पीकरण करती है , जलवृष्टि का कुछ अंश जैविक पदार्थों द्वारा प्राप्त कर लिया जाता है और कुछ अंश वाष्पीकरण की क्रिया से वायुमण्डल में ही प्रवाहित होकर पुन: विलीन हो जाता है ।
धरातलीय प्रवाहित जल का कुछ भाग मृदानमी के लिए धरातल द्वारा प्राप्त किया जाता है और कुछ अंश निवेशन - क्रिया से भूमिगत हो जाता है। भूमिगत जल गतिमान होता हुआ एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर प्रवाहित होते हुए समुद्रों को प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार धरातलीय जल नदियों के रूप में प्रवाहित होता है , और निवेशन - क्रिया से भूमिगत हो जाता है। पर्वतीय शिखरों पर जमें बर्फ से हिमानी तो बन जाता है , किन्तु सभी का सम्मिलित रूप तरलादस्या होने पर महासागरों को प्राप्त होता है । पुनः समस्त क्षेत्रों से महासागरीय भाग इस जल का वाष्पीकरण करके गैस के रूप में वायुमण्डल को वापस लौटा देते हैं । जलवाष्प पूरित यह गैस मेघों का निर्माण करती है और यही मेघ धरातल के ऊपर पुन: जलवृष्टि का कार्य करती है , यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है और जलचक्र की एक समाप्ति के बाद कई चक्र चलते रहते हैं।
इस प्रकार जल के गैस रूप से तरल रूप और पुन: तरल से गैस रूप को प्राप्त होना ही एक चक्र की समाप्ति मानी जाती है। इसी तरह जल चक की क्रिया चलते रहती है।

जलचक्र की अवस्था

जलचक्र की तीन प्रमुख अवस्थाएँ हैं :
  1. वाष्पीकरण
  2. संघनन और
  3. वर्षण

वाष्पीकरण
यह प्रक्रिया जल को गैस में बदल देता है और पार्थिव जल वायुमण्डल का अंग बन जाता है । वाष्पीकरण , वाष्पोत्सर्जन और ऊध्वपातन-जैसी प्रक्रियाओं से वायुण्डल को जलवाष्प प्राप्त होता है । एक निश्चित तापमान और वायुदाब की स्थिति में जलवाष्प ग्रहण की वायु की क्षमता निश्चित होती है, जब क्षमता के अनुरूप जलवाष्प प्राप्त हो जाता है , तो जलचक्र की दूसरी अवस्था संघनन शुरू होता है। इस अवस्था में असंख्य जलबूंद का निर्माण होता है।

संघनन
इसमें जलवाष्प का परिवर्तन जलबूंद या हिमकण में होता है । यह संघनन वायु के तापमान पर निर्भर करता है । संघनित वायु के जलबूंद या हिमकण में से किसी एक परिस्थिति या दोनों परिस्थितयों के एक साथ होने से जलचक्र की तीसरी अवस्था ( वर्षण ) शुरु हो जाती है ।

वर्षण
निम्न दशाओं के सम्भव होने पर ही वर्षण सम्भव हो सकता है । (a) संतृप्त वायु के तापमान में कमी होने से अतिरिक्त आर्द्रता का वर्षण, (b) जलबूंद के मिलने से आकार बड़े होंगे एवं गुरुत्वाकर्षण से वर्षण होगा ।
वर्षण के बाद पार्थिव जल अपने स्रोत - क्षेत्र में पहुँच जाता है और जलचक्र क्रिया पूर्ण हो जाती है ।

जलीय अधिवास क्षेत्र

जलचक्र क्रिया की कोई निश्चित अवधि नहीं होती है। पार्थिव जल कई अवस्थाओं में रहते हैं और सभी अवस्थाओं से जलवाष्प में परिवर्तन एक समय में सम्भव नहीं है। अत: कुछ जलीय चक्र लम्बी अवधि की और कुछ लघुकालीन होती है। जलचक्र के समय को जानने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि किस अधिवासी अवस्था में पार्थिव जल को कितना समय लगता है।
पार्थिव जल का अधिवास - क्षेत्र अधिवास की औसत अवधि
वायुमण्डल 10 दिन
नदी 2 सप्ताह
झील 10 सप्ताह
मृदा नमी 50 सप्ताह
भूमिगत जल 1 वर्ष – 10,000 वर्ष
महासागर 3600 वर्ष
ध्रुवीय बर्फ 15,000 वर्ष
स्रोत - मैसाचुसेटस ऑफ टेक्नालॉजी अध्ययन , वर्ष - 1971

स्वच्छ जल वितरण ( Distribution of Fresh water )
विभिन्न अधिवासी - क्षेत्रों में पार्थिव जल के वितरण भी असमान है और वाष्पीकरण एवं वर्षण - प्रक्रिया भी असमान है। परन्तु जल-प्रवाह, हिमानी और भूमिगत जल - प्रवाह , जलचक्र - क्रिया को संतुलित करते हैं। पार्थिव जल के वितरण की दृष्टि से 97 % जल महासागरीय क्षेत्र में है । 3% जल ही स्वच्छ जल है , किन्तु इसके वितरण में भारी विषमता है।

स्वच्छ जल का अधिवासी - क्षेत्र एवं वितरण
अधिवासी - क्षेत्र कुल स्वच्छ जल का %
हिमानी एवं हिमाच्छादित क्षेत्र 75%
वायुमण्डल 00.035%
नदी 0.030%
झील 0.300%
मृदा नमी 0.060%
भूमिगत जल 24.575%
100%

पार्थिव जल - सन्तुलन ( Terrestrial Hydrogical Balance )
वर्षा के द्वारा जो जल प्राप्त होता है , उस सम्पूर्ण जल - बजट का 97% से अधिक भाग महासागरीय भागों संचित अवस्था में है। जिसका विशेष उपयोग जीवधारियों और मानव - जगत के लिए नहीं हो पाता है । शेष बचे 3% में 2.25 % ध्रुवीय क्षेत्रों और पर्वतीय शिखरों पर हिमानियों के रूप में सुरक्षित है । बचे हुए भाग में 70 % भूमिगत अवस्था में पाया जाता है , शेष बचा हुआ 0.05 % जलभण्डार एक ऐसा भण्डार है जो मानव उपयोगी और जीवधारियों के लिए अनुकूल होता है । इस प्राप्त हुए सुरक्षित जल का 80 % भाग वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन की क्रिया - क्षेत्र से प्रभावित होकर वायुमंडल को प्राप्त हो जाता है । ऐसी विषम परिस्थिति में जल का एक सूक्ष्म भाग ही धरातलीय सतह ऊपर दिखाई देता है , जिसे हम जलचक्र में " क्रियाशील भण्डार ' की संज्ञा देते हैं। दूसरी तरफ एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि जल की विभिन्न प्रकार की स्थितियाँ जलचक्र के निर्माण में सहायक होती है । जलीय चक्र के निर्माण में हिम - वर्षण, जल - वर्षण, वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन, हिमद्रवण, भूतल जल - प्रवाह, अधोजल प्रवाह, ओल - पाला, तुषार, कुहरा, ओस - जैसी समस्त दशाओं का महत्वपूर्ण योगदान है । अत: जलवायु की समस्त दशाओं को हम जलीयचक्र की संकल्पना के अन्तर्गत सम्मिलित करते हैं ।

जलचक्र वर्गीकरण

पार्थिव जल के संतुलन की प्रक्रिया ही जलीय चक्र है। यद्यपि सभी क्षेत्र के जलचक्र एक ही प्रकार के कार्य करते हैं , परन्तु समय की विषमता के आधार पर इसे पाँच वर्गों में बाँटा गया है, जो निम्नलिखित है-
  • वायुमण्डलीय जलचक्र
  • बाधित जलचक्र
  • लघु जलचक्र
  • लम्बित जलचक्र
  • सामान्य जलचक्र
इन पाँचों प्रक्रिया द्वारा ही जलचक्र क्रिया पूर्ण होती है ।

वायुमण्डलीय जलचक्र
जलचक्र यह वह प्रक्रिया है जिसमें वायुमंडल का जल सतह पर नहीं आता है, वाष्पीकरण के ही समय निम्न वायुमंडलय से वह जलवाष्प बनकर ऊपरी वायुमंडल में चला जाता है और वायुमंडल में ही जलचक्र पूरा करता है । अत: इसलिए इसे वायुमण्डलीय जलचक्र कहते हैं।

बाधित जलचक्र
इसके अन्तर्गत वर्षण तो होता है , पर मृदा और वनस्पति की जड़े जल ग्रहण कर सामान्य प्रवाह को बाधित कर देते हैं। अत: वे जलबूंद जो अपने स्रोत तक जानेवाले थे, उनको मृदा व वनस्पति उपयोग में लाते हैं और कुछ अन्तराल के बाद वाष्पोत्सर्जन द्वारा वायुमंडलीय वाष्पन का अंग बना देते हैं। इस प्रक्रिया में जलचक्र थोड़े समय के लिए बाधित हो जाता है, इसलिए इसे बाधित जलचक्र कहते हैं।

लघुकालीन जलचक्र
यह विषुवतीय प्रदेश की विशेषता है। यहाँ प्रतिदिन वर्षा होती है और अगले ही सुबह वाष्पोत्सर्जन आरम्भ हो जाता है । पुन तीसरे पहर में उसी जल का वर्षण भी हो जाता है। यही कारण है कि इसे लघुकालीन जल चक्र कहा जाता है

लम्बित जलचक्र
यह दो क्षेत्र की विशेषता है : -
ध्रुवीय क्षेत्र , भूमिगत जल - क्षेत्र।
ये दोनों क्षेत्र सूर्य की तीव्र किरणों के प्रभाव से सुरक्षित होते हैं। अतः इनके जल के वाष्पोत्सर्जन लम्बे समय में होता है । फलत: इसे लम्बित जलचक्र कहा जाता है।

सामान्य जलचक्र
इसके अन्तर्गत पार्थिव जल पाँच प्रमुख अवस्थाओं से गुजरता है।
  1. वाष्पीकरण प्रक्रिया में समुद्री जल वायुमंडल में जाते हैं।
  2. जलवाष्पयुक्त वायु का महाद्वीपीय क्षेत्र में परिसंचरण होता है
  3. पर्वतीय प्रभाव या अधिक ऊँचाई पर पहुंचने पर संघनन और बादल - निर्माण की अवस्था आरम्भ होती है ।
  4. चौथी अवस्था में वर्षण होता है ।
  5. पांचवी अवस्था में जल - प्रवाह - प्रक्रिया से महाद्वीप के अतिरिक्त जल समुद्री क्षेत्र में पहुँच कर संतुलन की स्थिति कायम करते हैं।

जलीयचक्र का प्रतिरूप

जलचक्र को प्रदर्शित करने के लिए अलग - अलग प्रतिरूपों का निर्माण किया गया है , जिसमें मुख्य: तीन प्रतिरूप हैं-
  1. विवरणात्मक प्रतिरूप (Descriptive Model)
  2. गुणात्मक प्रतिरूप (Quality Model)
  3. अभियांत्रिकी प्रतिरूप (Engineering Model)
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विवरणात्मक प्रतिरूप
इस प्रतिरूप के अन्तर्गत जलचक को सामान्य ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया , जाता है। वायुमंडलीय क्षेत्रों में जलवाय के माध्यम से मेघों का निर्माण होता है , जिसके द्वारा धरातलीय भाग पर वर्षण की क्रिया सम्भव होती है ।

गुणात्मक प्रतिरूप
इस प्रतिरूप के अन्तर्गत जलचक को एक सामान्य प्रकिया के आधार पर प्रस्तुत न करके पृथ्वी के ग्लोव के रूप में स्थितियों को आधार माना गया है और जल के अलग - अलग उपयोग, स्वास्थ निर्धारण, परिवर्तन एवं पुनचक्रण - प्रक्रिया को विकसित करने का प्रयास किया गया है । यह प्रतिरूप विवरणात्मक प्रतिरूप के आधार पर ग्लोब के सन्दर्भ में एक ज्यामितीय प्रदर्शन है।

अभियांत्रिकी प्रतिरूप
यह प्रतिरूप तकनीकी विशेपज्ञों के आधार पर विभिन्न प्रकार के अभिकल्पों के लिए तैयार किया गया है। इसका उपयोग जलीय क्षेत्रों में लगे अभियंताओं द्वारा किया जाता है। इसलिए इसे अभियांत्रिक प्रतिरूप कहते हैं। वस्तुत: यह प्रतिरूप भी विवरणात्मक और गुणात्मक प्रतिरूप का एक विकसित स्वरूप ही है।
अत: जलचक के उपरोक्त तीनों प्रतिरूपों से लगभग एक ही प्रकार की सैद्धांतिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है , जिसकी व्याख्या भी एकसमान होती है ।

निष्कर्ष (Conclusion)

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि जलचक एक महत्त्वपूर्ण वायुमंडलीय परिघटना है। जलचक्र का सामान्य अर्थ - महासागर से वायुमंडल में , वायुमंडल से स्थल की ओर तथा स्थल से महासागर की ओर जल की गति होती है। सौर - ऊर्जा से जलचक चलता है और इस चक में जल की भौतिक अवस्था में परिवर्तन होता है। जलचक कई उपक्रियाओं से होकर संचालित होता है। जल मनुष्य के नितान्त आवश्यकताओं में से एक है। इसलिए जलचक अवधारणा विषय भौतिक , जलवायु भूगोल के साथ - साथ मानव भूगोल का भी एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।

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