भारत के प्रथम राष्ट्रपति कौन थे
नया संविधान 26 जनवरी, 1950 से लागू होना था और उसके अनुसार यह आवश्यक था कि एक अंतरिम राष्ट्रपति चुनकर उस दिन भारत को एक स्वतंत्र गणराज्य घोषित कर दिया जाए। प्रधानमंत्री नेहरू तत्कालीन गवर्नर जनरल श्री राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाए जाने के पक्ष में थे, लेकिन संविधान सभा के सदस्यों ने एकमत हो इस पद के लिए राजेंद्र प्रसाद के नाम का समर्थन किया और इस तरह 26 जनवरी, 1950 को गवर्नमेंट हाउस के दरबार हॉल में आयोजित एक भव्य समारोह में राजेंद्र प्रसाद ने भारतीय गणतंत्र के अंतरिम राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण किया।
यह एक ऐसा ऐतिहासिक अवसर था, जिसका सबने अभिनंदन किया और जिसकी खबर देश-विदेश सब जगह प्रमुखतापूर्वक छपी। राजेंद्र प्रसाद के राष्ट्रपति चुने जाने का स्वागत करते हुए समाचार-पत्रों ने उनके सद्गुणों की प्रशंसा में अनेक बातें कहीं।
प्रतिष्ठित दैनिक-पत्र 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने लिखा -
अपने सम्मानित तथा अनुभवी नेता राजेंद्र प्रसाद का प्रथम राष्ट्रपति के रूप में संपूर्ण राष्ट्र हार्दिक स्वागत एवं अभिनंदन करता है। दीर्घकाल तक स्वतंत्रतासेनानी का त्याग-तपस्यापूर्ण जीवन जीने तथा संविधान निर्माण के कठिन एवं श्रमसाध्य कार्य में संविधान-सभा को कुशल रचनात्मक नेतृत्व प्रदान करने के अतिरिक्त राजेंद्र प्रसाद की अनुपम विशिष्टता यह है कि समर्थकों एवं विरोधियों, दोनों से ही इन्हें समान रूप से स्नेह तथा आदर प्राप्त है। ये एक अति सौम्य, सज्जन एवं विनयशील व्यक्ति हैं। कांग्रेस के सभी वर्गों तथा जनसाधारण का इन पर पूर्ण विश्वास है और देश के इस उच्चतम पद पर पहुँचाने में लोगों का इन पर इस भरोसे का उतना ही हाथ है, जितना कि इनकी विद्वत्ता एवं श्रेष्ठ कार्यों का।"सही मायनों में ये सच्चे गांधीवादी हैं, वस्तुत: गांधीजी के मूल्यों एवं आदर्शों को (जो आज लुप्त होती दिखाई देती है) मूर्तिमान करनेवालों में देश के राजनीतिक क्षेत्र में इनके जैसा अन्य कोई नहीं। विलक्षण दैदीप्यमान गुणों से युक्त होने के बावजूद इनका जैसा आडंबरहीन एवं दिखावे से मुक्त जीवन है, इनसे अधिक उपयुक्त अन्य कोई व्यक्ति नहीं, जो भारत के प्रथम राष्ट्रपति के रूप में उन आदर्शों को मूर्त रूप दे सके, जिनसे हमें इस गणराज्य की स्थापना की प्रेरणा मिली।
(मूल अंग्रेजी का भावानुवाद)
प्रमुख पत्र 'इंडियन एक्सप्रेस' ने तो उनके गुणों की चर्चा करते हुए उनकी तुलना भगवान् बुद्ध और महावीर तक से कर डाली -
सचमुच भारत के लिए यह अति सौभाग्य की बात है कि स्वाधीनता प्राप्त करने के शीघ्र बाद प्रथम नागरिक के रूप में इसे राजेंद्र प्रसाद जैसे महान् कद के व्यक्ति मिले, जिनमें ऋषि-मुनियों की बुद्धिमत्ता, गौतम बुद्ध की सहिष्णुता एवं सदय विचारशीलता और महावीर का आत्मत्याग एवं समचित्तता जैसे गुण मूर्तरूप में विद्यमान हैं।
(मूल अंग्रेजी का भावानुवाद)
एक और लोकप्रिय पत्र 'हिंदुस्तान टाइम्स' में छपी ये पंक्तियाँ भी उद्धृत करने योग्य हैं-
उन्होंने (राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद) स्वयं को सदा जनसाधारण में से एक माना और उनके तथा अपने बीच कभी कोई दूरी नहीं आने दी। देश की सेवा करते हुए वे जितना ऊपर उठते गए, उतना ही वे अपने लोगों के निकट होते गए, फलस्वरूप अति दीन-हीन साधारण व्यक्ति का भी एक सहग्रामवासी की भाँति उन तक पहुँच पाना संभव रहा। बिना माँगे ही जो सम्मान एवं प्रतिष्ठाएँ उन्हें मिलीं, इतना विनम्रतापूर्वक अनात्मशंसी भाव से उन्होंने ग्रहण किया कि आश्चर्य नहीं कि जनता ने उन्हें वह उच्चतम पद, जो स्वतंत्र भारत अपने किसी नागरिक को दे सकता है, देने का निश्चय किया। उनके राष्ट्रपति रहते हुए यह देश और सामान्य रूप से सारा संसार आश्वस्त है कि मुल्क के भीतर लोगों की स्थिति बेहतर बनाने तथा बाहर शांति स्थापित करने के गांधीजी के मूलभूत सिद्धांतों के प्रति लोकतांत्रिक भारत सदा सच्चा बना रहेगा।
(मूल अंग्रेजी का भावानुवाद)
दो बार और राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति चुनकर देश गौरवान्वित हुआ। सन् 1952 में हुए आम चुनाव के बाद विधायकों एव सांसदों के निर्वाचक मंडल द्वारा 13 मई, 1952 को अगले पाँच वर्षों के लिए वे विधिवत् राष्ट्रपति चुने गए। यही क्रिया सन् 1957 में दुहराई गई और इस तरह जनवरी 1950 से मई 1962, अर्थात् बारह वर्षों से भी कुछ ज्यादा समय तक राजेंद्र प्रसाद ने देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित किया।
26 जनवरी, 1950 को राष्ट्रपति पद का शपथ ग्रहण करने के बाद राजेंद्र प्रसाद ने जो भाषण दिया, उसकी चंद पंक्तियाँ उद्धृत करना यहाँ प्रासंगिक होगा -
हमारे इतिहास में यह स्मरणीय दिवस है। आइए हम उस शक्तिमान ईश्वर को धन्यवाद दें, जिसकी कृपा से हमने यह दिन देखा, उन राष्ट्रपिता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करें जिन्होंने हमें तथा सारी दुनिया को सत्याग्रह का अचूक रास्ता दिखाया, और जिनके मार्गदर्शन में इस राह पर चलकर हमने स्वतंत्रता हासिल की, उन असंख्य पुरुषों एवं स्त्रियों का शुक्रिया अदा करें, जिनके त्याग-तपस्या ने हमें आजादी दिलाई और यह अवसर सुलभ कराया कि हम संप्रभुता संपन्न भारतीय गणतंत्र की स्थापना कर सके।
उतार-चढ़ाववाले हमारे लंबे इतिहास में, आज पहली बार यह हुआ है कि उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक, पश्चिम में काठियावाड़ एवं कच्छ से पूर्व में काकिनाडा तथा कामरूप तक यह संपूर्ण विशाल भू-खंड एक साथ एक संविधान तथा एक राज्यसंघ के क्षेत्राधिकार के अंदर लाया गया है। यहाँ वास करनेवाले 32 करोड़ से भी अधिक स्त्री-पुरुषों के कल्याण का दायित्व अब यह संघ लेता है। इस गणतंत्र की सरकार अब जनता के लिए जनता के द्वारा चलाई जाएगी।
इस देश के नागरिकों के लिए न्याय, स्वाधीनता एवं समानता के अधिकार सुनिश्चित करना तथा इसके विस्तृत राज्य-क्षेत्र में रहनेवाले भिन्न-भिन्न भाषाभाषियों, धर्मावलंबियों एवं अपने अलग-अलग विशिष्ट रीति-रिवाजों को माननेवाले लोगों के बीच भाईचारा बढ़ाना इस गणतंत्र का उद्देश्य है। हमारा लक्ष्य है कि अपने देश का सर्वतोन्मुखी विकास करें और बीमारी, गरीबी तथा अज्ञानता से इसको छुटकारा दिलाएँ। उन सभी विस्थापित लोगों को, जिन्होंने बहुत दुःख-तकलीफ झेले हैं और आज भी कष्ट में हैं, पुन: आबाद एवं पुनर्वासित करने के लिए हम चिंताकुल हैं। जो किसी प्रकार से अक्षम या असमर्थ हैं, उन लोगों को विशेष सहायता एवं मदद की जरूरत है।
इन सारे लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि आज जो स्वतंत्रता हमें प्राप्त है, इसे हम सुरक्षित बनाए रखें और इसकी रक्षा करें। लेकिन आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता आज समय की उतनी ही अत्यावश्यक एवं अत्यंत महत्त्वपूर्ण माँग है, जितनी कि राजनीतिक स्वतंत्रता। पहले से कहीं ज्यादा निष्ठा, समर्पण एवं त्याग-भावना के साथ काम करने के लिए हमें तैयार हो जाना है। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है और यह आशा है कि जो अवसर हमें मिला है, उसका हम लाभ उठाएंगे'"और अपने संपूर्ण सामर्थ्य एवं शक्ति के साथ देश एवं जनता की सेवा में लग जाएँगे।
लोगों से मैं आशा करता हूँ और यह अपेक्षा रखता हूँ कि इस शुभ एवं मंगलमय दिन के आगमन की खुशियाँ मनाते हए वे अपना गंभीर दायित्व भी समझेंगे तथा उस महान् लक्ष्य, जिसको प्राप्त करने के लिए हमारे राष्ट्रपिता ने जीवन-पर्यंत काम किया, जो उनके जीने का मकसद था और जिसके लिए उन्होंने अपने प्राण की आहुति दी, की पूर्ति के लिए पुनः जी-जान लगा देंगे।
दीर्घकाल से राजेंद्र प्रसाद लोक एवं देश-सेवा कार्यों में लगे रहे थे और इस दौरान जो भी दायित्व उन्हें सौंपे गए थे, उन्हें उन्होंने पूरी निष्ठा, ईमानदारी, समर्पण एवं नि:स्वार्थ भाव से निभाया था। भारतीय गणतंत्र के प्रथम राष्ट्रपति पद पर स्थापित होने के बाद उनके कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ी और इतिहास गवाह है कि इसके निर्वहन में न तो वे कभी चूके न डगमगाए। वस्तुतः बारह वर्षों के अपने राष्ट्रपतित्व काल के दौरान जिन स्वस्थ परंपराओं की नींव उन्होंने रखी, प्रथम नागरिक के नाते औपचारिक और अनौपचारिक आचार के जो मानदंड स्थापित किए, उनसे न केवल हमारे गणराज्य को स्थिरता मिली, बल्कि हमारी प्रजातांत्रिक संसदीय प्रणाली और भी अधिक पुष्ट हुई। आगामी पीढ़ियों को भी आवश्यक प्रकाश और महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन मिला। एक ओर जहाँ उन्होंने अपनी असाधारण विद्वत्ता, बौद्धिक प्रखरता, संयम, समन्वय, सात्त्विकता और भारतीयता से राष्ट्रपति के पद को अद्भुत गरिमा प्रदान की, वहीं दूसरी ओर अपनी सादगी, सरलता, विनम्रता, मृदु स्वभाव तथा परोपकारी एवं परदुखकातर प्रकृति के कारण सर्वसाधारण के प्रिय नेता बने रहे।
राष्ट्रपति बनने के बाद एक राष्ट्राध्यक्ष की गरिमा के अनुरूप कड़ी सुरक्षा से घिरा तथा भव्य साज-सज्जा एवं ऐशो-आराम से युक्त आलीशान गवर्नमेंट हाउस (कालांतर में जिसका नामकरण राष्ट्रपति भवन हुआ) राजेंद्र प्रसाद का निवास बन गया। अब उनकी गतिविधियों तथा क्रियाकलापों के साथ अनेक ताम-झाम तथा औपचारिकताएँ जुड़ गईं, लेकिन कड़े सुरक्षा नियम अथवा पद के साथ जुड़ी अन्य बातें कभी भी उनके और जनता के बीच व्यवधान नहीं बन सकीं। सबके लिए वे सुलभ थे, सभी लोग उनसे मिलकर अपना दुःख-सुख कह समुचित परामर्श या सहायता प्राप्त कर सकते थे। वस्तुतः उनका पद जितना ऊँचा होता गया, उतना ही वे जनता के निकट होते गए।
उच्च पद एवं परिवेश के अनुसार राजेंद्र प्रसाद की जीवन-चर्या में कुछ परिवर्तन स्वाभाविक था, लेकिन मूलत: उनका रहन-सहन पूर्ववत् सादगीपूर्ण एवं आडंबरहीन बना रहा। जैसा कि अपेक्षित था, विशेष राजकीय समारोहों में एवं खास अवसरों पर अब वे शेरवानी और चूड़ीदार पायजामा धारण करने लगे, लेकिन उनकी सबसे अधिक आरामदायक पोशाक धोती-कुरता ही उनके नित्य का पहनावा बनी रही। खान-पान में भी वे शुद्ध शाकाहारी भोजन-चावल, रोटी, दाल, सब्जी, दूध, दही, फल लेने के अभ्यस्त थे, जिसकी व्यवस्था गवर्नमेंट हाउस की बड़ी पाकशाला से अलग उनकी निजी छोटी रसोई में होने लगी। जबसे उन्होंने खादीव्रत लिया था, तब से नियमित रूप से वे सुबह कुछ देर चरखा चलाया करते थे और गवर्नमेंट हाउस में आने के बाद भी उनकी इस नियम-निष्ठता में कोई अंतर नहीं आया। अत्यलंकरित दीवारों एवं विलासोपकरण से सुसज्जित कक्षावाले उस भवन में रहना राजेंद्र प्रसाद जैसे सादगी-प्रिय व्यक्ति को निश्चय ही काफी भारी और कष्टकर लगा होगा। अतः भवन के उस भाग की सजावट में जहाँ वे सपरिवार रहते थे, उनकी जीवनशैली के अनुरूप समुचित परिवर्तन किए गए। उनके शयन-कक्ष में स्प्रिंग वाले मोटे गुदगुदे गद्देदार शानदार पलंग को हटा काठ के तख्तोंवाली सादी पलंगनुमा चौकी रखवाई गई, महंगे ब्रोकेड एवं साटिन के परदे उतार खिड़कियों पर खादी के परदे लटकाए गए, कुर्सियों एवं सोफों की गद्दियों पर खादी खोल चढ़ाए गए, मखमली पलंगपोश की जगह खादी चादरें बिछाई गईं और स्नानागार में भी मुलायम विदेशी तौलियों का स्थान खुरदरे खादी गमछों ने ले लिया।
राष्ट्रपति को 10,000 रुपए वेतन के अतिरिक्त अन्य कई प्रकार की सुविधाएँ तथा भत्ते दिए जाने का प्रावधान हमारे संविधान में किया गया था। उन्हें उन सुविधाओं का भी हकदार बनाया गया था, जो संविधान लागू होने के पूर्व गवर्नर-जनरल को मिला करती थीं, जैसे कि एक राष्ट्राध्यक्ष के पद एवं गरिमा के अनुरूप साज-सज्जा युक्त भव्य आवास, उसकी व्यवस्था, देखभाल और उनकी व्यक्तिगत सेवा के लिए विभिन्न वर्गों में बंटे कर्मचारीगण तथा आने-जाने के लिए कई प्रकार की गाड़ियाँ एवं वाहन। भत्तों में अधिकांश राशि सरकारी एवं राजकीय अतिथियों के स्वागत-सत्कार के लिए थी। राष्ट्रपति बनने पर राजेंद्र प्रसाद को भी ये सारी सुविधाएँ दी गईं, लेकिन पद संभालते ही उन्होंने इनमें अनेक परिवर्तन एवं कटौतियाँ करवाई। जैसे ही उन्हें ज्ञात हुआ कि अतिथियों के स्वागत-सत्कार के लिए मिलनेवाले भत्तों का न तो लेखा-परीक्षण होना था और न ही उन पर कर देना था, उन्होंने उन्हें लेने से इनकार कर दिया तथा कहा कि सरकार स्वयं इन ख) का लेखा-जोखा रखे। और ऐसा प्रबंध हो जाने के बाद भी अनेक ऐसे मेहमानों की मेजबानी, जो सरकारी अतिथि की श्रेणी में आ सकते थे, वे स्वयं अपने पैसों से करते। एक और निर्णय उन्होंने यह लिया कि भवन के उन स्थायी कर्मचारियों को, जो उनकी और उनके परिवार की सेवा में थे, उनके निजी खाते से कुछ अतिरिक्त पारिश्रमिक या अन्य सुविधा दी जाए। अतः धोबी, नाई और ऐसे ही अन्य कर्मचारियों को उनकी तरफ से प्रतिमाह एक निश्चित राशि का अतिरिक्त भुगतान किया जाने लगा। उनकी निजी रसोई में काम करनेवाले रसोइयों एवं खिदमतगारों को भी उन्होंने स्वयं अपनी ओर से भोजन देने की व्यवस्था की।
जहाँ तक वेतन की बात है, संविधान द्वारा नियत दस हजार रुपए की राशि उन्हें ज्यादा प्रतीत हुई और यह उन्होंने कभी नहीं ली। पद ग्रहण करते ही उन्होंने इसे कम करवाया, फिर समय-समय पर बार-बार इसमें अनेक स्वैच्छिक कटौतियाँ करवाईं जिनके फलस्वरूप वर्ष 1960 में यह घटकर मात्र 2500 रुपए रह गया, जो कर कटवाने के बाद और भी कम हो जाता था। इस संबंध में भ्रातृज जनार्दन प्रसाद वर्मा को संबोधित दिनांक 10 जुलाई, 1960 के उनके पत्र से चंद पंक्तियाँ उद्धृत करना यहाँ प्रासंगिक होगा-
शायद यह सुनकर तुमको कुछ आश्चर्य हो कि मैंने ऐसा फैसला कर लिया है कि अब से मैं अपने मुशाहरे को पाँच हजार से घटाकर ढाई हजार कर दूंगा।
तुम जानते हो कि हमारे विधान के अनुसार दस हजार मासिक वेतन राष्ट्रपति के लिए है। पर प्रायः शुरू से दस हजार के बदले छह हजार लेना मैंने शुरू किया और कुछ दिनों के बाद उसको घटाकर पाँच हजार कर दिया था। उसमें इनकम टैक्स वगैरह काट कर मुझे इकतीस सौ रुपए के लगभग मिल रहे थे। अब पचीस सौ मासिक वेतन कर देने से इनकम टैक्स वगैरह काट देने पर शायद दो हजार महीने में मिला करेंगे। इससे खर्च की तरफ कुछ ज्यादा ध्यान रखना पड़ेगा। उम्मीद है कि आज तक जैसे सब काम चला है, आगे भी ईश्वर निभा देगा।
पूर्ण रूप से भारतीय परंपरा से जुड़े राजेंद्र प्रसाद को अपनी संस्कृति से अत्यधिक प्रेम था। अपने लंबे राष्ट्रपतित्व काल के दौरान अनेक नवीन परंपराएँ आरंभ कर उन्होंने अंग्रेजियत भरे गवर्नमेंट हाउस के कोने-कोने में नई हवाओं का संचार किया। बहुत हद तक उन्हीं की प्रेरणा से दिल्ली और शिमला के उनके निवासों को नए नाम (राष्ट्रपति भवन और राष्ट्रपति निवास) दिए गए। यह उन्हीं की सोच थी कि दक्षिण में भी राष्ट्रपति का एक निवास होना चाहिए और जब उस निवास के नामकरण की बात आई तो उपराष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन तथा अन्य दक्षिण भारतीय मित्रों से परामर्श कर उन्होंने उसको 'राष्ट्रपति निलयम' नाम दिया। इस बात का उन्होंने विशेष ध्यान रखा कि वह नाम तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम-चारों भाषाई उपखंडों में सामान्य रूप से बोधगम्य हो।
अब वे प्रत्येक वर्ष कुछ दिन हैदराबाद के बोलारम में स्थित 'राष्ट्रपति निलयम' में बिताने लगे, साथ ही बारी-बारी से दक्षिण के अन्य राज्यों की राजधानियों में वहाँ के निवासियों के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाने की परंपरा भी उन्होंने आरंभ की। वास्तव में इन सब के पीछे राजेंद्र प्रसाद की दूरदृष्टि थी, देश को भावनात्मक एकता में बाँधने के उनके ये रचनात्मक प्रयास थे। जहाँ तक उनके स्थायी निवास दिल्ली के राष्ट्रपति भवन की बात है, उसे न केवल नया नाम मिला, बल्कि उसका अभिनव संस्कार भी हुआ। भवन की भव्यता कायम रखते हुए बहुत सुंदर ढंग से उन्होंने उसका भारतीयकरण किया। उनके आदेश से उनके सचिवालय ने विभिन्न राज्य सरकारों से पत्राचार किया कि भवन के कक्षों की सजावट के लिए वे अपने-अपने राज्यों में बननेवाली हस्तकारी की चीजें उपलब्ध कराएँ और इस प्रकार अनेक कक्षों की सज्जा को भारतीय रंग दिया गया। उन्हीं के प्रभाव और प्रेरणा से मुगल उद्यान तथा भव्य अशोक कक्ष (जो पहले बॉल-रूम कहलाता था, जहाँ कभी नृत्य हुआ करता, शराब की दौर चला करती) में आए दिन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समारोह आयोजित होने लगे, शास्त्रीय एवं भक्ति-संगीत की स्वर-लहरियाँ गूंजने लगीं। राष्ट्रपति भवन के भोजन कक्ष एवं आलीशान बैंक्वेट हॉल हमारे अंग्रेजी शासकों की पारंपरिक भोजन-व्यवस्था को ध्यान में रखकर बनाए गए थे। अंग्रेजी पद्धति में भोजन से अधिक महत्त्व भोजन-पात्र, परोसने और खाने की कला को दिया जाता है तथा राष्ट्रपति भवन में इस परंपरा का निर्वाह चरम सीमा तक किया जाता था। नि:संदेह पाश्चात्य भोजन-शैली का अपना एक अलग ही सौंदर्य है। अंग्रेजों के समय के प्रशिक्षित राष्ट्रपति भवन के रसोइए, खिदमतगार और बेयरे पकवानों को पात्र में सजाने, भोजन के टेबुल की सज्जा करने एवं दस्ताने पहनकर परोसने में जिस कलात्मकता व स्वच्छता का परिचय देते थे, उसे सराहे बिना नहीं रहा जा सकता, फिर भी भारतीय परंपरा की लुभावनी बातें जोड़कर इसे और निखारा जा सकता था। मसलन सभी अवसरों के उपयुक्त वहाँ चीनी-मिट्टी, काँच और चाँदी के बरतनों का अभूतपूर्व संग्रह था।
राजेंद्र प्रसाद की पहल पर अब इस भंडार में चाँदी की थालियों और कटोरियों का समावेश हुआ तथा कई बार भोजों में इनका भी उपयोग होने लगा। सागवान और महोगनी की श्रेष्ठतम लकड़ियों से बनी पॉलिशदार मेजों पर कतार में सजी चाँदी की ये चमचमाती थालियाँ अद्भुत छटा प्रस्तुत करतीं। एक बार तो विशिष्ट राजकीय अतिथि तिब्बत के श्री दलाई लामा के सम्मान में दिए गए दिन के भोज में परंपरागत भारतीय शैली में जमीन पर अल्पना रचकर आसन-चौकी बिछा थाली में खाने का आयोजन हुआ था। इस प्रकार राजेंद्र प्रसाद की प्रेरणा से राष्ट्रपति भवन की भोजन-व्यवस्था को बहुत सुंदर ढंग से भारतीय रंग दिया गया।
राष्ट्रपति के उच्च पद पर आसीन राजेंद्र प्रसाद को जो भी अवसर एवं अधिकार प्राप्त थे, उनका प्रयोग उन्होंने देश एवं देशवासियों की सेवा के लिए किया, साथ ही विदेशों में भारत की जो प्रतिष्ठा बढ़ी, उसमें भी प्रथम नागरिक के नाते उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। जो भी विदेशी अतिथि भारत आते, वे उनके भव्य व्यक्तित्व-असाधारण विद्वत्ता, बौद्धिक प्रखरता, सादगी, सरलता एवं विनम्रता की अमिट छाप अपने साथ ले जाते। एक राष्ट्राध्यक्ष की हैसियत से राजेंद्र प्रसाद भी नेपाल, जापान, इंडोनेशिया, मलाया, कंबोडिया, वियतनाम, लाओस, श्रीलंका, रूस इत्यादि अनेक देशों की सद्भावना-यात्रा पर गए और उनकी इन यात्राओं से देश को बहुत लाभ पहुँचा।
जहाँ भी वे गए, वहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ। यहाँ यह बता देना उचित होगा कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति की हैसियत से ही नहीं, बल्कि एक व्यक्ति के रूप में भी लोग बड़े उत्साह एवं खुले दिल से उनका स्वागत करते। विदेशों में उनको कितना आदर एवं सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण था टोक्यो में उनकी अगवानी के लिए स्वयं जापान के सम्राट् का हवाई अड्डे पर पहुँचना। जापान के इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि परंपरा से हटकर राजाओं-महाराजाओं के अलावा किसी राष्ट्राध्यक्ष का स्वागत करने सम्राट् स्वयं हवाई अड्डे पर गए हों। यही नहीं, सम्राट् द्वारा उनके सम्मान में दिए गए राजकीय भोज में उनके प्रति विशेष आदर दिखाते हुए केवल निरामिष भोजन परोसा गया। राजेंद्र बाब प्रथम विदेशी अतिथि थे, जिनको जापान की दो शीर्ष शिक्षण संस्थाओं-ओथनी
और रियुकोकू विश्वविद्यालयों ने बौद्ध शास्त्र एवं साहित्य में डॉक्टरेट की मानद उपाधियों से सम्मानित किया। बुद्ध के उपदेशों तथा बौद्ध-दर्शन पर उनके व्याख्यानों ने उस देश के लोगों पर गहरा प्रभाव डाला। गांधीवाद की उनकी व्याख्या से भी लोग बहुत प्रभावित हुए और भारत तथा भारतीयों के प्रति उनकी जिज्ञासा एवं सद्भावना में और वृद्धि हुई। वस्तुतः राजेंद्र प्रसाद से प्रत्यक्ष भेंट के बाद विदेशियों का भारत के प्रति सद्भाव कितना अधिक बढ़ जाता था, इस देश की प्रतिष्ठा एवं महत्ता कितनी ऊँची हो जाती थी, यह उनकी प्रत्येक यात्रा में लक्ष्य किया गया। उन देशों के समाचार-पत्र उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत लेख छापते और स्वाधीन भारत की प्रगति एवं उपलब्धियों की विस्तारपूर्वक चर्चा करते।
सन् 1960 में रूस की यात्रा के दौरान वहाँ के लोग उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुए कि मॉस्को के 'न्यू टाइम्स' ने उनकी जीवनी प्रकाशित की, फिर एक वर्ष बाद सन् 1961 में वहाँ उनकी आत्मकथा का रूसी-अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। सोवियत रूस की उनकी सद्भावना यात्रा की चर्चा करते हुए मद्रास के पत्र 'हिंदू' ने लिखा था "राष्ट्रपति की यात्रा से नि:संदेह रूस में भारत की समस्याओं के प्रति चिंता जागी है और जिस गरमजोशी से प्रत्येक स्थान पर उनका स्वागत हुआ, उससे ज्ञात होता है कि हमारी राजनीतिक प्रणालियों में भिन्नता के बावजूद रूस में भारत के प्रति भारी सद्भावना है।" लेकिन गौरतलब है कि स्वयं राजेंद्र प्रसाद के लिए ये यात्राएँ मात्र सद्भाव बढ़ाने या दृश्य-दर्शन तक ही सीमित नहीं रहती थी, जहाँ भी वे जाते बहुत बारीकी से वहाँ की संस्कृति, शिक्षा-पद्धति, कृषि-प्रणाली, औद्योगिक विकास, अर्थव्यवस्था आदि का अध्ययन करते और स्वदेश लौटकर मित्रों, स्वजनों, संबद्ध मंत्रियों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से उनके अनुकरणीय गुणों की चर्चा करते। रूस से वापस लौटकर उन्होंने 20 पृष्ठों का एक परिपत्र लिखकर सरकार को भेजा, जिसमें उन्होंने दिखलाया कि बहुभाषी भारत की तरह रूस भी बहुत बड़ा देश है, जहाँ अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग भाषाएँ बोली जाती हैं, फिर भी सारे देश की एक राष्ट्रभाषा है, और उनका अनुकरण कर हम भी अपनी भाषा-समस्या को कैसे सुलझा सकते हैं।
राजेंद्र प्रसाद की सादगी, सरलता, नम्रता, सौम्यता, सहिष्णुता, मृदुल स्वभाव तथा कोमल एवं उदार हृदय की बहुत प्रशंसा की जाती रही है, लेकिन साथ ही इन बातों को लेकर लोगों ने अपने मन में अनेक भ्रांतियाँ भी पाल रखी हैं, जिनको दूर करना आवश्यक है। यह सच है कि वे 'सादा जीवन उच्च विचार', के आदर्श में विश्वास करते थे और तड़क-भड़क से दूर अपने रहन-सहन, पोशाक इत्यादि में अत्यधिक सादगी बरतते थे, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि राष्ट्रपति के पद की गरिमा या उसके साथ जुड़े प्रोटोकॉल यानी जाने-माने शिष्टाचार अथवा अदब-कायदों की ओर उनका ध्यान नहीं जाता था। उनके कार्यकाल में जो लोग उनके साथ जुड़े रहे, वे जानते हैं कि जब भी इन बातों या व्यवस्थाओं में कोई चूक होती, किस प्रकार न केवल अपने अधीनस्थ कर्मचारियों, बल्कि कई बार संबद्ध मंत्रियों का भी ध्यान इस ओर आकृष्ट कर वे आवश्यक हिदायत देते। एक बार तो अपनी एक विदेश-यात्रा के संबंध में, जिसमें इन बातों में आवश्यक सावधानी और सतर्कता नहीं बरती गई थी, प्रधानमंत्री से ही वे सवाल कर बैठे थे कि जिन राजनयिकों ने वह कार्यक्रम बनाया, उन्होंने क्यों नहीं सुनिश्चित किया कि भारत के राष्ट्रपति के प्रति एक राष्ट्राध्यक्ष के यथोचित सभी शिष्टाचार निभाए जाएँ। साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि यह व्यक्तिगत रूप से उनका नहीं, भारत के राष्ट्रपति के सम्मान का प्रश्न था। इसी प्रकार राजेंद्र प्रसाद की स्वाभाविक सहज मधुरता उनकी कमजोरी नहीं थी, ना ही वे राजनीति में दुर्बल या कठोर कदम लेने में अक्षम थे। वे कट्टर नहीं थे और अहंभाव तो उनमें लेशमात्र भी नहीं था। कभी भी वे प्रतिद्वंदिता के वशीभूत नहीं हुए और विवादों से स्वयं को उन्होंने सदैव दूर रखने की कोशिश की थी, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर सख्त रुख अपनाने में उन्हें देर नहीं लगती थी। वे केवल संवैधानिक राष्ट्रपति नहीं थे, जब-जब उन्होंने महसूस किया कि संविधान को तोड़ा-मरोड़ा जा रहा था या जो कुछ हो रहा था, वह राष्ट्र हित में नहीं था तो स्पष्ट शब्दों में उन्होंने प्रधानमंत्री को वैसा न करने की सलाह दी। उनके और प्रधानमंत्री के बीच परस्पर प्रेम तथा आदर की कमी नहीं थी, लेकिन दोनों के दृष्टिकोण भिन्न होने के कारण कुछ विषयों पर दोनों में मतभेद हो जाता था। ऐसी बातें जिनका राष्ट्रीय जीवन में बहुत महत्त्व नहीं था, राजेंद्र प्रसाद बरदाश्त कर लेते, लेकिन जब भी सिद्धांत या देशहित की बात सामने आती, वे पर्वत की भाँति अटल हो जाते और व्यक्तिगत संबंधों या हानि-लाभ की परवाह किए बिना कठोर भी बन जाते। किसी भी विषय पर ठोस एवं सही तर्कों के आधार पर ही उनकी राय कायम होती और पूरे सोच-विचार तथा तर्क-वितर्क के बाद एक बार जो रुख वे अख्तियार करते, लाख कठिनाइयों के बावजूद उस पर वे डटे रहते, उसे छोड़ना उन्हें मंजूर नहीं होता। इस संदर्भ में 'हिंदू-कोड-बिल' पर प्रधानमंत्री और उनके बीच हुए मतभेद का उल्लेख प्रासंगिक होगा।
यह आम धारणा है कि हिंदू-कोड-बिल को लेकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच विचारों की भिन्नता तब प्रकट हुई, जब सन् 1951 में यह संसद् में लाया गया, लेकिन जैसा कि तथ्य बताते हैं संविधान लागू होने के पूर्व, वस्तुतः इसके बनकर तैयार होने के काफी पहले सन् 1948 में ही नेहरूजी ने इस बिल को पारित करवाने का प्रयास किया था और तब अध्यक्ष की हैसियत से राजेंद्र प्रसाद ने आपत्ति की थी कि संविधान सभा का संयोजन किसी संप्रदाय विशेष के व्यक्तिगत कानून से निपटने के लिए नहीं, वरन् देश का संविधान बनाने के लिए किया गया था, अत: वह वैसी सभा नहीं, जिसमें इस प्रकार का विधेयक लाया जाए। संविधान लागू होने के उपरांत सन् 1951 में प्रधानमंत्री ने फिर एक बार इस विषय को उठाया और इस बिल को संसद् में ले आए। इस बार राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति थे और उनके हस्ताक्षर से ही यह बिल कानून बन सकता था, इस बार भी इसके विरुद्ध जो आपत्तियाँ उन्होंने व्यक्त की उनमें मुख्य यही था कि इस प्रकार का आधारभूत कानून बनाने को उस समय कार्य कर रही संसद् सक्षम नहीं थी, क्योंकि उसका गठन एक विशेष प्रयोजन यानी संविधान बनाने के लिए किया गया था और एक कार्यवाहक निकाय के रूप में उसे केवल तब तक काम चलाने का अधिकार दिया गया था, जब तक कि परिकल्पित रीति के अनुसार वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव कर नई संसद् का गठन न हो जाए। जब अगले चार महीनों के भीतर आम चुनाव होने जा ही रहे थे तो उससे पूर्व जनता का आदेश माँगे और पाए बिना ही उतावली में वैसा कानून बना देना (जिससे कि देश के एक अधिसंख्यक समाज के लोगों के जीवन पर इतना बड़ा प्रभाव पड़नेवाला था) अनैतिक, और संवैधानिक रूप से अनधिकृत था। प्रधानमंत्री ने जब उनके तर्कों को मानने से इनकार कर दिया तो राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि संसद् और राष्ट्रपति दोनों के ऊपर निर्वाचकगण हैं। सरकार तथा राष्ट्रपति के बीच मतभेद से उत्पन्न ऐसी समस्या का लोकतांत्रिक समाधान यह हो सकता है कि निर्वाचक-मंडल के पास जाया जाए और इसके लिए अपने विशेष अधिकार का प्रयोग कर राष्ट्रपति लोकसभा को भंग भी कर सकते हैं। साथ ही उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि प्रश्न के सभी पहलुओं, विशेषकर इस बात पर विचार किए बिना कि संवैधानिक दृष्टि से क्या सही है, वे कोई निर्णय नहीं लेंगे। जैसा कि इतिहास बताता है, नि:संदेह यह राजेंद्र प्रसाद की दृढ़-निश्चयता का ही परिणाम था कि उस संसद् द्वारा हिंदू-कोड-बिल के केवल एक भाग को ही पारित करवा कानून बनाया जा सका, मूल विधेयक आम चुनाव के बाद ही लाना संभव हुआ।
यह तो संवैधानिक औचित्य-अनौचित्य की बात थी, कई बार नित्यप्रति के कार्यों और कार्यक्रमों को भी लेकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच मतांतर हो जाता था। साधारण महत्त्व की बातों में राजेंद्र प्रसाद प्रायः पंडितजी को तरजीह दे देते थे, लेकिन सिद्धांत की बात पर उनको अपने निश्चय से डिगा पाना असंभव था। मसलन दिसंबर 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु पर राजेंद्र प्रसाद ने अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए बंबई जाने का कार्यक्रम बनाया तो नेहरूजी ने आपत्ति जताई कि महज किसी मंत्री की मृत्यु पर इस प्रकार राष्ट्रपति का दौरे पर जाना, उनके पद की गरिमा को घटाना और गलत परंपरा को जन्म देना होगा, अतः वे न जाएँ, लेकिन राजेंद्र प्रसाद ने उनकी सलाह नहीं मानी, हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार जो उचित है, उसी परंपरा का पालन करना ठीक समझा। इसी प्रकार सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन के लिए राष्ट्रपति के सौराष्ट्र जाने के कार्यक्रम का प्रधानमंत्री ने तीव्र विरोध किया था। इससे पूर्व कि हम जानें कि इस विरोध के उत्तर में राष्ट्रपति ने क्या कहा यह आवश्यक है कि इस मंदिर के इतिहास और इसके जीर्णोद्धार से संबंधित बातों से हम अवगत हों। सोमनाथ मंदिर की गणना भारत के प्राचीनतम और समृद्धतम मंदिरों में की जाती थी।
दसवीं शताब्दी में आक्रमणकारी महमूद गजनवी ने इसे तोड़ा और लूटा था, उसके बाद यह मंदिर अनेक बार बना तथा नष्ट किया गया। जूनागढ़ के भारतीय राज्यसंघ में विलयन के उपरांत जब सरदार पटेल उस क्षेत्र में गए, तब मंदिर के खंडहरों को देख बहुत दुःखी हुए एवं वहीं हाथ में समुद्र-जल लेकर संकल्प किया कि वे इसका जीर्णोद्धार कराएँगे। गांधीजी की सम्मति के अनुसार कि इसका जीर्णोद्धार सरकारी धन से नहीं, बल्कि जनता द्वारा प्रदत्त राशि से किया जाए, एक सोमनाथ ट्रस्ट बनाया गया और केंद्रीय मंत्री श्री कन्हैयालाल मुंशी की अध्यक्षता में एक सलाहकार समिति गठित की गई। निर्माण पूरा होने पर सरदार पटेल स्वयं इसका उद्घाटन करनेवाले थे, लेकिन दुर्भाग्य से इससे पूर्व ही उनकी मृत्यु हो गई। तब बहुत सोच समझकर श्री मुंशी ने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को इस पुनीत कार्य के लिए आमंत्रित किया। इस पर पंडितजी बहुत नाराज हुए और बहुत तरह से उन्होंने राजेंद्र प्रसाद को वहाँ जाने से रोकने का प्रयल किया। उनकी नजर में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के राज्याध्यक्ष का इस प्रकार के 'धार्मिक पुनर्जागरणवाद' यज्ञ से संबद्ध होना उचित नहीं था, लेकिन राजेंद्र प्रसाद अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। उन्होंने कहा कि निमंत्रण पाकर या अपनी इच्छा से भी जब वे अन्य धर्म और संप्रदायों के पूजा-स्थलों को जाते हैं तो उस समारोह से जुड़कर कुछ अलग या अनोखा नहीं कर रहे। सरकार ने मंदिर के जीर्णोद्धार पर कुछ खर्च नहीं किया था और वह निमंत्रण भी उन्हें राज्य के राजप्रमुख, जो कि सोमनाथ ट्रस्ट के अध्यक्ष थे, से मिला था; केंद्रीय मंत्रिमंडल के दो मंत्री तथा राज्य के मुख्यमंत्री भी ट्रस्ट के सदस्य थे, अत: उस निमंत्रण को अस्वीकार करने का कोई औचित्य नहीं था। अंततः पुनर्निर्मित सोमनाथ मंदिर में प्रतिमा-प्रतिष्ठा का वह समारोह विधिवत् धार्मिक रीति से संपन्न हुआ और उक्त अवसर पर राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने जो अनुपम भाषण दिया, उसका न केवल ऐतिहासिक महत्त्व है, बल्कि श्री मुंशी (जो स्वयं एक जाने-माने साहित्यकार थे) के अनुसार साहित्य की सर्वोत्तम कृतियों में उसकी गणना की जा सकती है।
वस्तुतः इन मतांतरो एवं विचारों की भिन्नता के बावजूद राजेंद्र प्रसाद और पंडित नेहरू के बीच सद्भाव की कमी नहीं थी। दोनों देशभक्त और लोकतांत्रिक मूल्यों के हिमायती एवं पोषक थे, उनके बीच मतभेद में भी देशहित की भावना रहती थी। दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते थे और एक अर्थ में एक-दूसरे के पूरक भी थे, लेकिन यह कहना अत्युक्ति न होगी कि मुख्यतः राजेंद्र प्रसाद की धीरता, गंभीरता, दूरदर्शिता, संयम तथा सहिष्णुता के कारण ही गणतंत्र के आरंभिक दिनों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का रिश्ता इतनी शालीनता से निभा एवं हमारे गणराज्य का रथ इतने सुचारू रूप से चला। राजेंद्र प्रसाद के सारे कार्य राष्ट्र-हित से प्रेरित होते थे। उनके राष्ट्रपतित्व-काल के दौरान कई बार ऐसे प्रसंग उपस्थित हुए, जो उनके गांधीवादी विचारों से मेल नहीं खाते थे, लेकिन राष्ट्रहित में उन्होंने उन्हें बरदाश्त किया, कोई विवाद नहीं खड़ा किया, कभी व्यवधान नहीं बने। जैसा कि सेठ गोविंद दास ने उनके विषय में लिखा है, "लोकहित की दृष्टि से ही वह लिखते थे, लोकहित की दृष्टि से ही वह बोलते थे और लोकहित के लिए एक साधक की भाँति चुप रहना भी वह अच्छी तरह जानते थे"। पंडित नेहरू ने भी एक बार कहीं कहा था-"राजेंद्र प्रसाद का अपनी जबान, दिल और कलम तीनों पर काबू है। जब कि मेरा इन तीनों में से किसी पर नहीं"।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति की पद-निवृत्ति
सन् 1962 मई में राष्ट्रपति का कार्यकाल समाप्त होने को था और राजेंद्र प्रसाद ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि पुनः वे इस पद के प्रत्याशी नहीं होंगे। बारह वर्षों से भी कुछ अधिक समय तक देश के उच्चतम पद को सुशोभित करने, उसकी गरिमा निभाने तथा उसके सम्मान को ऊँचाइयों तक पहुँचाने के बाद अब वे कार्यमुक्त होने जा रहे थे। उनकी पद-निवृत्ति की बात सारे देश में चर्चा का विषय बन गई थी और आए दिन विभिन्न वर्गों एवं संस्थाओं द्वारा सरकारी एवं गैर-सरकारी स्तर पर उनके सम्मान में अभिनंदन एवं विदाई-समारोह आयोजित होने लगे थे। लेकिन कदाचित् इनमें सबसे अधिक स्मरणीय दिल्ली के नागरिकों द्वारा 10 मई, 1962 को रामलीला मैदान में आयोजित आम एवं विशिष्ट जनों की वह विशाल सभा थी, जिसमें उनकी प्रशंसा में दिल को छु लेनेवाली अनेक अविस्मरणीय बातें कही गईं।
प्रधानमंत्री नेहरू ने भावपूर्ण शब्दों में कहा था-
राजेंद्र प्रसाद और मेरा पैंतालीस बरस का साथ रहा। पहले तो हम आजादी की लड़ाई में साथ रहे, उसके बाद वह राष्ट्रपति बने और मैं उनका प्रधानमंत्री रहा। इस लंबे अरसे में मैंने उन्हें बहुत देखा और उनसे बहुत कुछ सीखा।'' उन्होंने ऐसी मिसाल कायम की, जिससे भारत की शान और इज्जत बढ़ी 'उनके राष्ट्रपति पद पर रहने के बारह सालों का जमाना भारत का अच्छा जमाना माना जाएगा। इस जमाने में हमने जो कुछ किया, उनकी निगहबानी में किया और शान से किया। हम यदि गलती करते थे तो वह हमें सँभालते थे। यह बारह सालों का जमाना तो उनका जमाना समझा जाएगा।
उक्त अवसर पर उपराष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन सहित अनेक वरिष्ठ व्यक्तियों ने हृदयस्पर्शी भाषण दिए, प्रतिष्ठित नामी कवियों ने भावभीनी कविताएँ पढ़ीं। और इन सब के उत्तर में आभार प्रकट करते हुए राजेंद्र प्रसाद ने अपना हृदय खोलकर रख दिया। पूरी सच्चाई और ईमानदारी के साथ बोलते हुए उन्होंने कहा कि उनकी अवकाश-प्राप्ति के साथ उनके जीवन का एक अध्याय समाप्त होने जा रहा था। जनता की सेवा के लिए अब तक उन्हें जो भी दायित्व सौंपे गए थे, उन्हें उन्होंने अपना कर्तव्य समझकर निभाया था और अब जब वे उस पद से मुक्त हो रहे थे, उन्हें खुशी महसूस हो रही थी, कुछ वैसी ही खुशी "जैसी कि स्कूल से छुट्टी पाकर एक बच्चे को होती है"। वस्तुत: उनकी यह भावाव्यक्ति न केवल उनकी विनम्रता एवं निस्पृहता की परिचायक थी, बल्कि अति सरल शब्दों में इसमें उन्होंने पद और व्यक्ति के संबंध की सुंदर व्याख्या भी कर डाली थी। भाव-विह्वल स्वर में जब वे अनजाने में हुई अपनी त्रुटियों के लिए ईश्वर और जनता से क्षमा माँगने लगे तो श्रोताओं के लिए आँसू रोकना कठिन हो गया। उनके नाम के जयकार से संपूर्ण वातावरण गुंजायमान हो उठा। 13 मई को राजेंद्र प्रसाद ने औपचारिक रूप से कार्यभार डॉ. राधाकृष्णन को सौंप दिया और उसी दिन नए राष्ट्रपति ने संसद् भवन में एक भव्य समारोह में उन्हें देश के उच्चतम नागरिक सम्मान 'भारत-रत्न' की उपाधि से विभूषित किया। 13 मई की संध्या को नेताओं और जनता की भारी भीड़ ने पूरे सम्मान एवं समारोह के साथ राजेंद्र प्रसाद को दिल्ली से विदा किया। छह घोड़ों की बग्घी पर राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन के साथ वे स्टेशन के लिए रवाना हुए। उनको विदाई देने के लिए राष्ट्रपति भवन से रेल-स्टेशन तक पूरे मार्ग पर सड़कों के दोनों ओर लोग भारी संख्या में खड़े थे। जिन रास्तों से उनकी बग्घी को गुजरना था, उन्हें झंडों और तोरणों से सजाया गया था, जगह-जगह विशेष द्वार बनाए गए थे। स्टेशन पर भी अपार जन-समूह अपने प्रिय नेता को विदाई देने के लिए खड़ा था। निर्धारित समय पर जैसे ही रेंगते हुए गाड़ी आगे बढ़ी, उनकी जयजयकार से आकाश गूंज उठा।
FAQ :
भारत के प्रथम राष्ट्रपति कौन थे?
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद थे
भारत में प्रथम राष्ट्रपति कब बना?
26 जनवरी, 1950 को गवर्नमेंट हाउस के दरबार हॉल में आयोजित एक भव्य समारोह में राजेंद्र प्रसाद ने भारतीय गणतंत्र के अंतरिम राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण किया.